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modern society

कोई भी गांव, देश हो या फिर कोई भी चीज, वो हर गुजरते लम्हों के साथ बदलती है। हमारा व्यक्तित्व भी। और ग्रोथ के लिए समय के साथ बदलाव, जरूरी भी है। आज मार्डन दिखने की चाहत में, कहीं हम रूढि़यों की जगह अपने संस्कारों को तो नहीं छोड़ रहे? और अगर ऐसा है भी, तो क्या इसके लिए सिर्फ हमारी यंग जेनेरेशन जिम्मेदार है, या फिर घर के बड़ों से कोई कोताही हो रही है? मार्डन शब्द का मतलब है कि - पारंपरिक रूढियों को त्याग कर, नए युग की परिस्थितियों के अनुसार आचरण करना। इसका सीधा सा अर्थ है- अप टू डेट रहना। लेकिन आज हम, आधुनिकता की होड़ में अपने संस्कारों की आहुति दे रहे हैं। अपने शौक पूरे करना, अपने तरीके से लाइफ जीना, सही है, लेकिन अपने गार्जियंस, अपने बड़ों के सामने थोड़ा पर्दा रखना भी जरूरी है। उदाहरण के लिए एक दोस्त के साथ फ्रेंकली बात की जा सकती है, उसे वो चीज कूल लगेगी, लेकिन हो सकता है कि जो लोग आपसे उम्र में ज्यादा बड़े हैं, उन्हें वो बातें बुरी लग जाएं। हो सकता है कि उन्हें लगे कि आप उनकी रिस्पेक्ट नहीं करते। क्योंकि एक जेनरेशन गैप है, और वो हमेशा रहेगा। हमें उसकी वैल्यू और अस्तित्व दोनों को समझने की जरूरत है। मॉर्डन होना, हमेशा जरूरी रहेगा, लेकिन हमें कुछ रिश्तों की पोजीशन, उनकी गरिमा को निभाते हुए चलना होगा।

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लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी, नैतिक और संस्कारी नहीं है, बल्कि सवाल तो यह है कि क्या हमारी जिम्मेदारी सिर्फ युवा पीढ़ी को दोष देकर खत्म हो जाती है? एक छोटे बच्चे को जिस प्रकार की शिक्षा दी जाती है, वो उसी में ढल जाता है और पूरी उम्र उसे वो याद रहता है। उदाहरण के लिए बच्चों को बचपन में यह सिखाया जाए कि चोरी करना बुरी बात है, तो वो उन्हें हमेशा याद रहेगी। वो लेकिन चोरी जैसा काम करने से पहले, सौ बार सोचेंगे। कहीं इसका कारण माइक्रो फैमिली का बढ़ता ट्रेंड तो नहीं। कुछ दशक पहले तक, संयुक्त परिवार हुआ करते थे। घर के बड़ों से प्यार के साथ-साथ, गलत काम करने पर डाट- फटकार भी मिलती थी। लेकिन आज माइक्रो फैमिली में, या तो बच्चों का आचरण ऐसा हो चुका है, जो अपने पेरेंट्स की भी बातों या गुस्से का बर्दाश्त नहीं करना चाहते, या फिर पेरेंट्स यह सोचने लगे हैं कि समय बदल चुका है और बच्चों पर कोई बंदिश नहीं लगानी है। लेकिन इस आजादी में कहीं ऐसा तो नहीं, कि बच्चों को गलत करने की भी परमिशन दी जा रही है। अपने बच्चों के साथ दोस्तों के जैसा व्यवहार रखना सही है, इससे बच्चे खुलकर हर बात आपसे शेयर कर पाएंगे। लेकिन अगर कुछ मर्यादाएं और बंदिशें होंगी, तो युवा गलत रास्ते की ओर बढ़ने से बच सकते हैं।

सही मायने में आधुनिकता कुछ भी श्रृंगार कर अपने आप का दिखावा करने में नहीं होती। फटे या कम कपड़े पहनने में नहीं है। वहीं नए जमाने के अनुसार चलना जरूरी भी है, लेकिन हम समाज में रहते हैं, तो यह नहीं कह सकते कि हमें सोसायटी से क्या लेना देना है। रूढि़वादी हरगिज मत बनिए, लेकिन शर्म और संस्कारों की कीमत पर, आधुनिक दिखना कहां तक सही है। परिस्थितियों के अनुसार बदलना चाहिए, लेकिन अपने सामाजिक बंधनों और बुजुर्गों की हिदायतों को जरूर याद रखें। ज्यादातर लोगों को शायद ऐसा लगता है कि विदेशी रहन-सहन ही आधुनिकता है, लेकिन ऐसा नहीं है। क्योंकि जो लोग सही मायने में मॉर्डन हैं, वो सिर्फ पुरानी रूढि़यों को नहीं मानते, लेकिन संस्कारों को जीना और समझना आज भी नहीं भूले हैं। पहले समय में लोग मिलनसार थे और रिश्तों में गर्माहट थी, लेकिन आज के युवा मोबाइल फोन और सोशल नेटवर्क में इतने खोए हुए हैं कि उनके पास दूसरों के लिए समय नहीं है। संस्कार, हमारी जड़ें, हमारी पहचान, और शिष्टाचार हैं, यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलते हैं। हर चीज की तरह, आधुनिकता के भी दो पहलू होते हैं। अच्छा और बुरा। इसलिए, यह हम पर निर्भर करता है कि हम क्या चुनते हैं। जिस महान भूमि पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और अर्जुन जैसे महान व्यक्तित्वों ने जन्म लिया था, आज उसी भूमि से रीति-रिवाज, नैतिकता और मूल्य खो रहे हैं। ऐसी आधुनिकता का क्या फायदा, जहां इनसान ऊपर चढ़े और इनसानियत नीचे गिर जाए। द रेवोल्यूशन -देशभक्त हिंदुस्तानी की ओर से हम सिर्फ यही संदेश देना चाहेंगे, कि हर रिश्ते में रिस्पेक्ट जरूरी है। बच्चों के साथ दोस्तों की तरह रहना, भी जरूरी है। लेकिन इस जेनरेशन गैप की इज्जत करना भी उतना ही जरूरी है, ताकि जाने-अनजाने बुजुर्गों की नसीहतें और उनके इमोशन हर्ट न हों।